चाँद तनहा है ......
चाँद तनहा है आसमान तनहा ,
दिल मिला है कहाँ कहाँ तनहा।
बुझ गयी आस चुप गया तारा,
सरसराता रहा पत्ता तनहा।
जिन्दगी क्या इसी को कहते हैं,
जिस्म तनहा है और रूह तनहा।
हमसफ़र कोई गर मिले भी कही,
दोनों चलते रहे तनहा तनहा।
जलती बुझती रौशनी के परे,
सिमटा सिमटा सा एक मकान तनहा।
राह देखा करेगा सदियों तक,
छोड़ जायेंगे ये जहाँ तनहा।
यह कविता भोपाल से श्री उपदेश सक्सेना, पत्रकार ने भेजी है आप सबके लिए।
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3 comments:
अच्छी रचना. अच्छी शुरुआत, अच्छे मकसद के लिए. आभार.
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अक्सर होता है एसा; रचनाएं प्रकाशन तक जाती हैं, संपादक तक जाती हैं,! फ़िर कहाँ जाती हैं! कुछ रचनाकारों व् रचनाओं को छोड़ देन तो कुछ का नसीबा डस्टबिन भी होता है (सच्चाई है)...इसके आगे-पीछे कई सवाल होते हैं, प्रकाशन से संपादक और रचना से लेके रचनाकार तक के लिए...इन सबके बाद सशक बात रचना और रचनाकार पर निर्भर रहती है...मंजिल पाने वाला पाके रहता है और रचना का भविष्य उसकी उत्क्रस्त्था पर निर्भर करता है की वो सागर में तैरेगी या कहें बिला जायेगी...
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शुभकामनयें.
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उल्टा तीर
सुन्दर कविता
स्वागत हैं आप का ।
मैं केरल का एक ब्लोगर, मलयलम मैं और थोड़ा थोड़ा हिन्दी में भी ब्लोग्ता हूँ ।
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