Thursday, July 31, 2008

मेघ-गीत


उमड़ते-गरजते चले आ रहे घन, घिरा व्योम सारा कि बहता प्रभंजन,

अंधेरी उभरती अवनि पर निशा-सी, घटाएँ सुहानी उड़ी दे निमंत्रण!


कि बरसो जलद रे जलन पर निरन्तर,तपी और झुलसी विजन भूमि दिन भर,

करो शांत प्रत्येक कण आज शीतल, हरी हो, भरी हो प्रकृति नव्य सुन्दर!


झड़ी पर, झड़ी पर, झड़ी पर, झड़ी हो, जगत-मंच पर सौम्य शोभा खड़ी हो,

गगन से झरो मेघ ओ! आज रिमझिम, बरस लो सतत, मोतियों-सी लड़ी हो!

हवा के झकोरे उड़ा गंध-पानी, मिटा दी सभी उष्णता की निशानी,

नहाती दिवारें नयी औ' पुरानी, डगर में कहीं स्रोत चंचल रवानी!

कृषक ने पसीने बहाए नहीं थे,नवल बीज भू पर उगाये नहीं थे,

सृजन-पंथ पर हल न आए अभी थे, खिले औ' पके फल न खाए कहीं थे!

दृगों को उठा कर, गगन में अड़ा कर, प्रतीक्षा तुम्हारी सतत लौ लगा कर— हृदय से,

श्रवण से, नयन से व तन से, घिरो घन, उड़ो घन घुमड़कर जगत पर!

अजब हो छटा बिजलियाँ चमचमाएँ,अँधेरा सघन, लुप्त हों सब दिशाएँ भरन पर,

भरन पर सुना राग नूतन, नया प्रेम का मुक्‍त-संदेश छाये!

विजन शुष्क आँचल हरा हो, हरा हो, जवानी भरी हो सुहागिन धरा हो,

चपलता बिछलती, सरलता शरमती, नयन स्नेहमय ज्योति, जीवन भरा हो!
--महेन्द्र भटनागर, अनुभूति से

Friday, July 18, 2008

बरसों के बाद उसी सूने- आँगन में
बरसों के बाद उसी सूने- आँगन में
जाकर चुपचाप खड़े होना
रिसती-सी यादों से पिरा-पिरा उठना
मन का कोना-कोना
कोने से फिर उन्हीं सिसकियों का उठना
फिर आकर बाँहों में खो जाना
अकस्मात मंडप के गीतों की लहरी
फिर गहरा सन्नाटा हो जाना
दो गाढ़ी मेंहदीवाले हाथों का जुड़ना,
कँपना, बेबस हो गिर जाना
मित्र राजेंद्र यादव ने नईदिल्ली से भेजी है.

Thursday, July 3, 2008

सपना सही सलामत है

इन्द्रधनुष जैसी सतरंगी दुनिया सही सलामत है

आँखे उजाड़ गयी तो क्या बस सपना सही सलामत है,

जिसका इक इक तिनका यारो वर्षों पहले बिखर गया,

मेरी नजरों में उस घर का नक्षा सही सलामत है,

हालातों ने कील ठोंक दी बेशक मेरे सीने में,

मगर गाँव में जाकर कहना सब कुछ सही सलामत है,

जिसके शब्द शब्द को हमने आंसू जल से लिख्खा है,

उस किताब का अब तक पन्ना पन्ना सही सलामत है,

आने वाला वक्त गढ़ेंगे हम ख़ुद अपने हांथों से,

तन का संबल टूट गया पर मन का सही सलामत है

मित्र संजय सक्सेना झाबुआ के भेजे हुए शुभकामना संदेश से ........