Monday, June 30, 2008

पाल बाँधना छोड़ दिया

पाल बाँधना छोड़ दिया है
जब से मैंने नाव में,
मची हुई है अफरा-तफरी,
मछुआरों के गाँव में।।

आवारागर्दी में बादल
मौसम भीलफ्फाज हुआ,
सतरंगी खामोशी ओढ़े
सूरजइश्क मिजाज हुआ,
आग उगलती नालें ठहरीं,
अक्षयवट की छाँव में।।

लुका-छिपी केखेल-खेल
मेंटूटे अपने कई घरौदें,
औने-पौनेमोल भाव
मेंचादर के सौदे पर सौदे,
लक्ष्यवेध का बाजारू मन,
घुटता रहा पड़ाव में।।

तेजाबी संदेशों में
गुमहैं तकदीरे फूलों की,
हवा हमारे घर को तोड़े
साँकल नहीं उसूलों की,
शहतूतों पर पलने वाले,
बिगड़ रहे अलगाव में।।
--कुमार शैलेन्द्र

Saturday, June 28, 2008

अब नहीं हो ......

हार किस काँधे पे धर दूँ ,
जीत किस को भेंट कर दूँ,
कोई तो अपना नही था,
एक तुम थे अब नही हो।

किस तरह राहत बनेगी,
टूट जाने की हताशा,
थक गई साँसों को देगा,
कौन जीवन की दिलासा

बिस्तरों पर सलवटें अब,
नींद क्या, बस करवटें अब,
रात ने ताने दिए तो,
आँख में बस बात ये की,

कोई तो सपना नहीं था,
एक तुम थे अब नही हो,
किस हथेली की रेखाओं,
का वरन मैंने किया है,

किसका क्षण भर प्यार पाने को,
जनम मैंने लिया है,
इस प्रश्न का हल मिला कल,
वही रीता हुआ पल,

जिसने मेरा गीत साधा,
जो कहो रत्ना या राधा,
कोई तो इतना नहीं था,
एक तुम थे अब नही हो।
उक्त कविता लखनऊ से सुश्री आदिती राज्यवर्धन ने भेजी है परिक्रमा के लिए,

Thursday, June 26, 2008

चाँद तनहा है ......

चाँद तनहा है आसमान तनहा ,
दिल मिला है कहाँ कहाँ तनहा।

बुझ गयी आस चुप गया तारा,
सरसराता रहा पत्ता तनहा।

जिन्दगी क्या इसी को कहते हैं,
जिस्म तनहा है और रूह तनहा।

हमसफ़र कोई गर मिले भी कही,
दोनों चलते रहे तनहा तनहा।

जलती बुझती रौशनी के परे,
सिमटा सिमटा सा एक मकान तनहा।

राह देखा करेगा सदियों तक,
छोड़ जायेंगे ये जहाँ तनहा।

यह कविता भोपाल से श्री उपदेश सक्सेना, पत्रकार ने भेजी है आप सबके लिए।

Monday, June 23, 2008


आज भी दुष्यंत .......

होने लगी है जिस्म में

होने लगी है जिस्म मैं जुम्बिश तो देखिये,
इस परकटे परिंदे की कोशिश तो देखिये।

गूंगे निकल पड़े हैं जुबान की तलाश में,
सरकार के खिलाफ ये साजिश तो देखिये।

बरसात आ गई तो दरकने लगी जमीन ,
सूखा मचा रही है ये बारिश तो देखिये,

उनकी अपील है की उन्हें हम मदद करें,
चाकू की पसलियों से गुजारिश तो देखिये।

जिसने नज़र उठाई वही शख्स गुम हुआ
इस जिस्म के तिलस्म की बंदिश तो देखिये।

हिन्दी ने इंटरनेट पर जिस गति से अपनी जगह बनाई है वह चौंकाने वाली है। इस बात में कोई शक नहीं कि हिन्दी अख़बारों और हिन्दी टीवी चैनलों से लेकर हिन्दी फिल्मों ने हिन्दी को स्थापित करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। लेकिन इसके साथ ही हिन्दी को बाजार की भाषा बनाने के नाम पर उसके साथ शर्मनाक दुराचार भी किया है। इसका कारण यह है कि अंग्रेजी स्कूलों में अंग्रेजी माहौल में पले-बढ़े लोगों ने अपनी एमबीए और मास कम्युनिकेशन की डिग्रियों के बल पर मीडिया, कॉर्पोरेट और सैटेलाईट चैनलों की महत्वपूर्ण जगहों पर कब्जा कर लिया। यहाँ आने के बाद भाषा की शिष्टता, उसकी शुध्दता और भाषाई सौंदर्य का उनके लिए कोई मतलब नहीं रहा। हिन्दी मात्र बोली रह गई यानि जिसको हिन्दी बोलना आता है और जो हिन्दी समझ लेता है वह देश और दुनिया में बसे 70 करोड़ हिन्दी भाषियों का मसीहा हो गया। हिन्दी लिखना या पढ़ना आना कोई योग्यता नहीं रही।

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हिन्दी लिखो-ईनाम पाओ

Friday, June 20, 2008


आज भी दुष्यंत .....
कहाँ तो तय था

कहाँ तो तय था चिरागां, हरेक घर के लिए,
कहाँ चिराग मयस्सर नहीं, शहर के लिए।

दरख्तों के साए मैं धुप लगती है,
चलो यहाँ से चलें उम्र भर के लिए।

न हो कमीज तो पांवों से पेट ढक लेंगे,
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफर के लिए।
खुदा नहीं , न सही आदमी का ख्वाब सही,
कोई हसीं नजारा तो है नजर के लिए।

वे मुतमईन हैं की पत्थर पिघल नहीं सकता,
मैं बेकरार हूँ आवाज मैं असर के लिए।

तेरा निजाम है सिल दे जुबान शायर की,
ये अहतियात जरूरी है इस बहार के लिए।

जियें तो अपने बगीचे मैं गुलमोहर के तले,
मरें तो गैर की गलियों मैं गुलमोहर के लिए।
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Wednesday, June 18, 2008


शंकर सक्सेना की दोहा सागर


सागर से बादल बना , बादल से बरसात।
वर्षा से रोटी मिले , कुदरत की सौगात


अंकुर फूटा खेत मैं, नाच उठा मन मोर ।

मस्त नगाडे सा लगा, बरखा-बादल शोर॥


बहीं मछलियां धर मैं, चिंतित नदी तालाब।

वापस अपने देश को, लौट आए सुरखाब॥


किरण सांवरी हो गयी, देख मेघ का रूप।

खोज रही घनश्याम को, राधा नगरी रूप॥


लाज रंगी वृषभानुजा, टाक रही घनश्याम।

नटनागर लौटे नही, फिर घिर शाम॥


बादल, वर्षा देखकर, कैसे हँसे किसान।

खेत बने कालोनियां, कहाँ लगाएं धान॥


गीत गुनगुनाये नदी, झूमे सारा गाँव ।

झरे निबोरी भावःकी , पग पग महके छाँव॥


लोलुप मन खंजन नयन, इन सबकी गति दीन।

पावस भर व्याकुल रहे, उथले जल की मीन॥


ये सावन बैरी हुआ, तुम्हें ले गया साथ।

'शंकर' पत्थर हो गए, बैठे मलते हाथ।


मन टूटा, हारा, जुदा, उड़ा तौलता पंख।

पड़े रह गए रेत पर घोंघे, शीपी शंख ॥


कौवा, सुग्गा, मोर सब, रहे परों को नोच।

कौन विचारे अब सगुण, कौन मधाये चोंच॥

(आदरणीय शंकर सक्सेना, मध्य प्रदेश के जाने माने हस्ताक्षर है, निवास सी - १३, अमृता विहार, कोरिन्भाता

राजनांदगांव )


Sunday, June 15, 2008

गीतों का राजा - गोपाल दास ' नीरज '
सन् ५६-५७ की बात है मैं अपने गावों के एक व्यक्ति के साथ अलीगड़ के मेले मैं घूमने गया था, वहां जाकर पता चला की आज रात ही मेले मैं कवि सम्मेलन होने वाला है, हम दोनों दोस्त कवि सम्मेलन मैं घुस गए। एक -दो कवितायें ही हो पाई थी की मेरा साथी बोला की क्या ढोलक ताशे नहीं बजेंगे, मैंने कहा की ये कोई नौटंकी थोड़े ही है, तो वो उठकर चला गया फिर मैं दिल से कवि सम्मेलन का लुत्फ़ लेने बैठ गया . कुछ कवियों का कविता पाठ होने के बाद शोर होने लगा नीरज नीरज ......जब आग्रह ज्यादा बढ़ा तो प्रस्तुतकर्ता ने नीरज जी को आवाज दी कुरता पाजामा पहने,पीछे को काढे हुए कुछ कुछ घुंघराले बाल शरारती कटीली आँखें, लगभग तीस साल का युवक मंच पर आया टू मंच तालियों से गूँज उठा पहले टू नीरज ने तीन चार रुबाइयाँ सुना कर सबको मदहोशी का इंजेक्शन लगा दिया फिर गीत गया -
अब जमाने को ख़बर कर दो
कि नीरज गा रहा है !
शोषदों कि हाट से लाशें
हटाओमर्घतों को खेत कि खुशबु सुन्घाओ
पतझरों मैं फूल के घुंघरू बजाओ
हर कलम कि नोंक पर मैं देखता हूँ
स्वर्ग का नक्शा उतरता आ रहा है
अब जमाने को ख़बर कर दो कि ...........
गीत समाप्त हुआ टू श्रोताओं के बीच से आवाज आयी कारवां ......... नीरज पूरी तरन्नुम से कारवां कि सेवा मैं लग गए
स्वप्न भरे फूल से
मीत चुभे शूल से
लुट गए सिंगार सभी
बाग़ के बबूल से
और हम खड़े खड़े बहार देखते रहे
कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे
*******
मांग भर चली कि एक नयी नयी किरण
ढोलकें धुनुक उठी ठुमक उठे चरण चरण
शोर मच गया कि लो चली दुल्हन चली दुल्हन
गाँव सब उमड़ पड़ा बहक उठे नयन नयन
पर तभी जहर भरी
गाज एक वह गिरी
पुँछ गया सिन्दूर तार तार हुई चूनरी
और हम अ-जान से
दूर के मकान से
पालकी लिए हुए कहार देखते रहे
कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे
जब कवि सम्मेलन अपने अंतिम चरण पर आया टू नीरज जी ने शायद अपने मर्जी से सुनाया
ऐंसी क्या बात है चलता हूँ अभी चलता हूँ
गीत एक और जरा झूम के गा लूँ तो चलूँ
कैसे चल दूँ कि कुछ और यहाँ मौसम है
होने वाली है सुबह पर न सियाही कम है
भूख बेकारी गरीबी कि घनी छाया मैं
हर जुबान बंद है हर एक नजर पुरनम है
तन का कुछ ताप घटे मन का कुछ पाप घटे
दुखी इंसान के आंसू मैं नहा लूँ तो चलूँ
ऐसी क्या बात है चलता हूँ अभी चलता हूँ
दो तीन दिन बाद नीरज जी को अचल ताल के पास वाली सिगरेट कि दूकान पर सिगरेट खरीदते हुए देखा तो मैं और मेरा साथी काफी देर तक उनके पीछे पीछे घुमते रहे और बाद मैं अपने साथियों से इस परम अनुभूति का बखान किया कि हमने नीरज जी को इतने पास से देखा हम नीरजजी का कोई भी कवि सम्मेलन नही छोड़ते थे। मैंने नीरजजी के कितने ही कविता पाठ सुने होंगे लेकिन हर कविता पाठ मैं मुझे एक ताजगी का अनुभव हुआ नीरज के मुख से एक ही कविता जाने कितने बार सूनी होगी मुझे याद नही पर हर बार ऐसा लगता था कि कोई शक्तिमान अपने मनोभावों का वर्णन कर रहा हो। नीरज जी का जीवन दर्शन अलग है कि व्यक्ति अलग है, व्यक्ति का नाम नीरज है यह शरीर अलग है और उसमें रहने वाला कवि अलग है इसीलिए कवि ने कहा कि तमाम उम्र मैं इक अजनबी कि तरह रहा सफर न करते हुए भी किसे सफर मैं रहा कवि के जीवन दर्शन मिलेगा आपको उसके मृत्यु गीत ओर जीवन गीत मैं मृत्यु गीत १५५ छंदों मैं और जीवन गीत १५४ छंदों मैं समाहित है जो नीरज को जानना चाहते हैं वे इन दो लम्बी कविताओं को अवश्य पढ़ें क्योंकि ये मंच से तो सुनने को मिलेंगे नही 'जहाँ न पहुंचे रवि , वहां पहुचे कवि कि उक्ति को चरितार्थ करते हुए कवि ने मृत्यु गीत कविता मैं मृत्यु के आगम और उसके आने पर मरने वाले के आसपास के वातावरण का इतना सटीक वर्णन किया है कि यह सिर्फ़ वही वर्णन कर सकता है जिसने भोग हो -अब शीघ्र करो तैयारी मेरे जाने कि
रथ जाने को बाहर तैयार खड़ा मेरा
है मंजिल मेरी दूर बहुत पथ दुर्गम
है हर इक दिशा पर डाला है तम ने डेरा
नर-नाहर कहकर छाती पीतेगी माँ
खा खा पछाड़ धरती आकाश हिलाएगी
चूडियाँ तोड़ सिन्द्दूर पोंछ सिर घुन घुन कर
विछिन्न लता सी प्राण प्रिया बिल्खायेगी
जब लाश चिता पर मेरी रखी जायेगी
अनजानी आँखें भी दो अश्रु गिरायेंगी
पर दो दिन के ही बाद यहाँ इस दुनिया मैं
रे याद किसी को मेरी कभी न आएगी
किंतु नीरज जी का जीवन दर्शन को समझने कि आवश्यकता है जहाँ वह कहता है
जिस जगह बैठा आज मैं बात कर रहा हूँ
उस जगह शीघ्र ही कोई आने वाला है
हूँ जाने को तैयार खड़ा मैं जहाँ आज
उस पथ से कोई पंथी आने वाला है
****
मैं जाता हूँ इसीलिए कि जल्दी लौट सकूं
दोनों ही और प्रतीक्षा मेरी होती है
जीवन मैं ऐंसा आकर्षण है एक अमर
मरकर भी न जीने कि लालसा खोती है
***
तुम कहते मुझे न भूलोगे जीवन भर
पर कल ही पहचान न मुझको पाओगे
ये वस्त्र उतार नए कल जब पहनूँगा
मैं तब मुझे अजनबी कहकर तुम मुस्काओगे
****
जो अब तक इतनी देर कही तुमसे
वह बात जिन्दगी कि थी मृत्यु बहाना था
मिटटी मानव कि एक कहानी थी जिसमें
छब्बीस सफों कि पुस्तक एक सुनानी थी

नीरज का कोई सानी नही गीत -
अनमन है गजल चुप है रुबाई है दुखी
ऐसे माहौल मैं नीरज को बुलाया जाए
वाकई कुछ बात तो है नीरज के गुनगुनाने मैं ----(प्रस्तुत अंश प्रख्यात लेखक डा कमल सिंह के सागर से साभार )