Thursday, March 12, 2009

मैं औरत......

मेरे आस-पास की औरतें
अब बदल रहीं हैं,
औरतपन बरक़रार रखते हुए भी,
अपना अलग इतिहास लिख रहीं हैं,
मेरे आस-पास की औरतें
अब बेटियों को अपनी,
उतरन की विरासत सोंपने की बजाय
नया लिबास गढ़ते हुए
उसकी आंखों में
अपने सपने भर रहीं हैं,
मेरे आस-पास की औरतें
जो काली परछाइयों सी
दीवारों पर लटकी थीं,
अब दिन के उजाले में
वजूद का अहसास दिला रहीं हैं,
मेरे आस-पास की औरतें
बड़ी पापड़ सुखाते हुए,
रगड़ रगड़ कढ़ाई चमकाते हुए,
सजती निखरती हुई,
आईने में ख़ुद को देख इतरा रहीं हैं,
मेरे आस-पास की औरतें
इतना सब होते हुए भी
हर बारिश के बाद
परम्पराओं की संदूकची से
संस्कारों के पुराने कपड़े निकाल
धूप दिखा रहीं हैं ।
मोना परसाई, भोपाल
ब्लॉग आरसी से साभार