Wednesday, May 7, 2008
Tuesday, May 6, 2008
बंधू फिर भी पूछते हो क्या हुआ
कंठ लोटे डीके फंसा है डोर मैं
और सौ सौ हाथ गहरा है कुआँ
बंधू फिर भी पूछते हो क्या हुआ
पूरा अँधेरा नाप कर पहुँचा अटल मैं
किंतु प्यासा ही रहा मैं डूब कर जल मैं
सैंकडो गोते सहे यह दंड बिन अपराध का
मैं भटकता अर्थ हूँ खंडित किसी संवाद का
खींचा गया ऊपर निकला पेट से पानी
पी चला पंथी डगर अपनी हमें देकर दुआ
बंधू फिर भी पूछते हो क्या हुआ
रक्षा अमावस क्यों करेगी चांदनी के साँस की
चील के घर सोंपना वह भी धरोहर मांस की
धन्य है आकाश की रक्षा व्यवस्था देखिये
आँख की इस किरकिरी को आप भी उल्लेखिये
चाँद को राह से होकर गुजरना है
राहू को रक्खा गया है उस डगर का पहरुआ
बंधू फिर भी पूछते हो क्या हुआ
कंठ निरंकुश और घायल वक्ष बूढे बाप का
सम्भव नही अनुभव करे अंगार अपने ताप का
बूढे युधिष्ठिर के ह्रदय का दर्द मुझको भी मिला
बंधू अब तक चल रहा है यह अनर्गल सिलसिला
उम्र के चौथे पहर तक दाँव ही लगते रहे
जिन्दगी है जिन्दगी या जिन्दगी केवल जुआ
बंधू फिर भी पूछते हो क्या हुआ
सरोवर मैं नही है जल कमल प्यासे रहें क्या
हठीले हंस लंघन की व्यथा व्याकुल सहें क्या
काम कल्पित कंदरा मैं बैठ कर जीता रहा
निर्धन अंधेरों की हताहत रौशनी पीता रहा
अमृत छुआ होगा किसी के वास्ते मैं कह नही सकता
मेरे लिए टू चन्द्रमा से जब छुआ विष ही छुआ
बंधू फिर भी पूछते क्या हुआ
सुन्दरी का गाध आलिंगन किसे भाये नही
चांदनी बातें करे टू कौन बतियाये नही
पर सजगता है जरूरी चंच्रिकी चाव में
नाव पानी मैं रहे पानी न आए नाव में
शीतल सलिल के कवच जिनको मिल गए वे धन्य हैं
ज्वालामुखी के पर्वतों ने रात दिन मुझको छुआ
बंधू फिर भी पूछते हो क्या हुआ
दल सबल दस्कंध्रों के घुमते हैं देश मैं
योजनायें अपहरण की साधुओं के वेश मैं
आदिवासी पर्ण कुटियों मैं पड़ी सीता सयानी
लक्ष्मण की चाप रेखाएं हुई कल्पित कहानी
भील भोले वंश की अब राम ही रक्षा करें
कंस बस्तर को गया रावन गया है झाबुआ
बंधू फिर भी पूछते हो क्या हुआ
कंठ लोटे डीके फंसा है डोर मैं
और सौ सौ हाथ गहरा है कुआँ
बंधू फिर भी पूछते हो क्या हुआ
पूरा अँधेरा नाप कर पहुँचा अटल मैं
किंतु प्यासा ही रहा मैं डूब कर जल मैं
सैंकडो गोते सहे यह दंड बिन अपराध का
मैं भटकता अर्थ हूँ खंडित किसी संवाद का
खींचा गया ऊपर निकला पेट से पानी
पी चला पंथी डगर अपनी हमें देकर दुआ
बंधू फिर भी पूछते हो क्या हुआ
रक्षा अमावस क्यों करेगी चांदनी के साँस की
चील के घर सोंपना वह भी धरोहर मांस की
धन्य है आकाश की रक्षा व्यवस्था देखिये
आँख की इस किरकिरी को आप भी उल्लेखिये
चाँद को राह से होकर गुजरना है
राहू को रक्खा गया है उस डगर का पहरुआ
बंधू फिर भी पूछते हो क्या हुआ
कंठ निरंकुश और घायल वक्ष बूढे बाप का
सम्भव नही अनुभव करे अंगार अपने ताप का
बूढे युधिष्ठिर के ह्रदय का दर्द मुझको भी मिला
बंधू अब तक चल रहा है यह अनर्गल सिलसिला
उम्र के चौथे पहर तक दाँव ही लगते रहे
जिन्दगी है जिन्दगी या जिन्दगी केवल जुआ
बंधू फिर भी पूछते हो क्या हुआ
सरोवर मैं नही है जल कमल प्यासे रहें क्या
हठीले हंस लंघन की व्यथा व्याकुल सहें क्या
काम कल्पित कंदरा मैं बैठ कर जीता रहा
निर्धन अंधेरों की हताहत रौशनी पीता रहा
अमृत छुआ होगा किसी के वास्ते मैं कह नही सकता
मेरे लिए टू चन्द्रमा से जब छुआ विष ही छुआ
बंधू फिर भी पूछते क्या हुआ
सुन्दरी का गाध आलिंगन किसे भाये नही
चांदनी बातें करे टू कौन बतियाये नही
पर सजगता है जरूरी चंच्रिकी चाव में
नाव पानी मैं रहे पानी न आए नाव में
शीतल सलिल के कवच जिनको मिल गए वे धन्य हैं
ज्वालामुखी के पर्वतों ने रात दिन मुझको छुआ
बंधू फिर भी पूछते हो क्या हुआ
दल सबल दस्कंध्रों के घुमते हैं देश मैं
योजनायें अपहरण की साधुओं के वेश मैं
आदिवासी पर्ण कुटियों मैं पड़ी सीता सयानी
लक्ष्मण की चाप रेखाएं हुई कल्पित कहानी
भील भोले वंश की अब राम ही रक्षा करें
कंस बस्तर को गया रावन गया है झाबुआ
बंधू फिर भी पूछते हो क्या हुआ
Monday, May 5, 2008
तुम काटो मैं वृक्ष लगाऊं
सृजन द्वार पर अलख जगाऊं
तुम काटो मैं वृक्ष लगाऊं
काट रहे क्यों प्यारे जंगल
बाँट रहे क्यों अरे अमंगल
सुख शान्ति के कोष यही हैं
क्यों करते हो घर मैं दंगल
तुम सूरज को चले डुबाने
मैं सूरज नित भोर उगाऊं ॥
छीना झपटी बहुत बढ़ी है
दंभ कपट चल नीति अडी है
जो वृक्षों को काट गिराए
मोटर उनके द्वार खड़ी है
चले तिलांजलि देने श्रम को
मैं श्रम के नवगीत सुनाऊं ॥
हरियाली को निगल रहे हैं
मौसम को भी चिगल रहे हैं
बढ़ा प्रदूषण घर आँगन मैं
जहर द्वार पर उगल रहे हैं
तुमने पीढ़ी पंगु बनाई
मैं गिरिवर रह उन्हें दिखाऊं ॥
सृजन द्वार पर अलख जगाऊं
तुम काटो मैं वृक्ष लगाऊ
( उक्त रचना वरिष्ठ कवि श्री बदरी प्रसाद परसाई के पर्यावरण गीत का अंश है मैं प्रयास करूंगा की इसे नियमित रूप से आपको प्रस्तुत करूं )
सृजन द्वार पर अलख जगाऊं
तुम काटो मैं वृक्ष लगाऊं
काट रहे क्यों प्यारे जंगल
बाँट रहे क्यों अरे अमंगल
सुख शान्ति के कोष यही हैं
क्यों करते हो घर मैं दंगल
तुम सूरज को चले डुबाने
मैं सूरज नित भोर उगाऊं ॥
छीना झपटी बहुत बढ़ी है
दंभ कपट चल नीति अडी है
जो वृक्षों को काट गिराए
मोटर उनके द्वार खड़ी है
चले तिलांजलि देने श्रम को
मैं श्रम के नवगीत सुनाऊं ॥
हरियाली को निगल रहे हैं
मौसम को भी चिगल रहे हैं
बढ़ा प्रदूषण घर आँगन मैं
जहर द्वार पर उगल रहे हैं
तुमने पीढ़ी पंगु बनाई
मैं गिरिवर रह उन्हें दिखाऊं ॥
सृजन द्वार पर अलख जगाऊं
तुम काटो मैं वृक्ष लगाऊ
( उक्त रचना वरिष्ठ कवि श्री बदरी प्रसाद परसाई के पर्यावरण गीत का अंश है मैं प्रयास करूंगा की इसे नियमित रूप से आपको प्रस्तुत करूं )
Saturday, May 3, 2008
एक कठिन प्रश्न व्यवस्था का
पिछले दिनों एक बहुत पुराने पत्रकार मिल गए। व्यवस्था से खफा रहना उनका पुराना शगल था जो आज तक कायम है। यार ये अखबार आजकल वो क्यों नही लिखते जो की पाठक पढ़ना चाहता है या की पाठक की मूल समस्या है। आते ही और बिना बैठे ही इतना खतरनाक सवाल सुनकर मैं हक्का बक्का रह गया। मैंने कुर्सी सरकते हुए कहा की आप क्या लेंगे मौसम के हिसाब से ठंडा या की फिर आदत के हिसाब से गरम। तेवर कुछ सामान्य डरने की कोशिश करते हुए उन्होंने कहा की यार स्थिति ख़राब है अभी की ही बात बताता हूँ अभी कुछ देर पहले मैं शर्माजी के घर बैठा था उनकी पत्नी चाय लाई साथ मैं कुछ नमकीन था मैंने कहाभाभीजी कैसे हैं वे भड़क कर बोली हम कैसे होंगे भइया हमारा तोबस वोही चूल्हा चौका ही है आज गैस खत्म हो गयी है सो इंतजाम नही हो रहा है। आप तो पत्रकार हो किसी से तो जान पहचान होगी ही हमारे लिए एक सिलिंडर का इंतजाम करवा दो । पूरी बात सुनने के बाद मैंने अन्दर आवाज लगा दी की दो ग्लास शरबत बनवा देना हरी भइया आए हैं।
आब बोलने की बारी मेरी थी भइया अब आप ये बताओ की इस समस्या मैं अखबारों की क्या गलती है वे इंधन किसमस्य पर तो बहुत पहले से ही हल्ला मचा रहे हैं । फिर भी अगर आप गैस की समस्या से निपटना चाहते हैं और शर्मा जी की पत्नी के सामने अपने आप को आज भी पत्रकार कहलाना चाहते है तो मैं इन अखबारों की सलामती के लिए आपको अपने घर से ही एक सिलेंडर दे सकता हूँ ताकि श्रीमती शर्मा का काम भी हो जाए और आपकी साख भी बनी रहे।
वे कहने लगे यार मैं सिर्फ़ इसीलिए आपकी इज्जत करता हूँ क्योंकि आप मन की बात समझते हैं। पर आपको यह मानना ही होगा की अखबार आम जनता की सुनने को आज तैयार नही है बाजार ने पत्रकारिता के मूल्यों का हनन किया है और पत्रकार पैसे के पीछे भाग रहे हैं। मैंने कहा भइया आप भी किस दुनिया मैं जी रहे है आजकल तो नागरिक पत्रकारिता का जमाना है। जिसमें नागरिक के लाभ के लिए ही काम किया जाता है और तो और ऐसी ख़बरों को प्राथमिकता दी जाती है जो की आम आदमी को सीधे सीधे प्रभावित कर रही हो । मेरा कहना ही था की मुझे लगा की मैंने घास के सूखे ढेर पर बैठकर सिगरेट सुलगा ली हो। भइया बोले तुम तो हो चू ----, तुमको क्या दिखाई नही देता की ये सब नागरिक पत्रकारिता के नाम पर आम जनता को और सरकार को ठग रहे हैं, पत्रकारिता मैं बनियों की चप्पलों को धोने वाले आज सब नागरिक पत्रकार बने फिर रहे है साले सब सुबह ग्यारह बजे से शाम पाँच बजे तक जनसंपर्क कार्यालय के कैम्पस मैं बैठे नजर आते हैं। उनसे अच्छा तो चोर होता है जो कहता है की मैं चोर हूँ आख़िर अपनी असलियत तो नही छुपाता है। आने वाले पत्रकारिता की पीढ़ी को अगर सबसे अधिक नुकसान होने वाला है तो वो ये तथाकथित नागरिक पत्रकार ही होंगे मैं तुम्हें ये दावे से कह सकता हूँ। इनसे तो ये अखबार ही अच्छे हैं जो अपने अखबार को एक उत्पाद की तरह तीन चार रुपयों मैं बेचकर पत्रकारिता को जीवित रखे हैं। अछा मैं चलता हूँ बाकी फिर कभी आज मंत्री के यहाँ जाना है साले का तबादले के सिलसिले मैं। मैंने भी अपने हाथ का शरबत ख़त्म किया वे काफी दूर तक निकल चुके थे।
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