Monday, September 22, 2008

गर्दिश के दिन

लिखने बैठ गया हूँ पर नहीं जानता संपादक की मंशा क्या है और पाठक क्या चाहते हैं,क्यों आखिर वे उन गर्दिश के दिनों में झांकना चाहते हैं,जो लेखक के अपने हैं और जिन पर वह शायद परदा डाल चुका है। अपने गर्दिश के दिनों को, जो मेरे नामधारी एक आदमी के थे, मैं किस हैसियत से फिर से जीऊँ?-उस आदमी की हैसियत से या लेखक की हैसियत से ? लेखक की हैसियत से गर्दिश को फिर से जी लेने और अभिव्यक्ति कर देने में मनुष्य और लेखक ,दोनों की मुक्ति है। इसमें मैं कोई ‘भोक्ता’ और ‘सर्जक’ की नि:संगता की बात नहीं दुहरा रहा हूँ। पर गर्दिश को फिर याद करने, उसे जीने में दारुण कष्ट है। समय के सींगों को मैंने मोड़ दिया। अब फिर उन सींगों को सीधा करके कहूँ -आ बैल मुझे मार!
मैं निहायत बेचैन मन का संवेदनशील आदमी हूँ। मुझे चैन कभी मिल ही नहीं सकता,इस लिये गर्दिश नियति है। गर्दिश कभी थी ,अब नहीं है,आगे नहीं होगी-यह गलत है। गर्दिश का सिलसिला बदस्तूर है,मैं निहायत बेचैन मन का संवेदनशील आदमी हूँ। ,यादें बहुत हैं। पाठक को शायद इसमें दिलचस्पी हो कि यह जो हरिशंकर परसाई नाम का आदमी है,जो हँसता है,जिसमें मस्ती है,जो ऐसा तीखा है,कटु है-इसकी अपनी जिंदगी कैसी रही? यह कब गिरा, फिर कब उठा ?कैसे टूटा? यह निहायत कटु,निर्मम और धोबी पछाड़ आदमी है।
संयोग कि बचपन की सबसे तीखी याद ‘प्लेग’ की है। १९३६ या ३७ होगा। मैं शायद आठवीं का छात्र था। कस्बे में प्लेग पड़ी थी। आबादी घर छोड़ जंगल में टपरे बनाकर रहने चली गयी थी। हम नहीं गये थे। माँ सख्त बीमार थीं। उन्हें लेकर जंगल नहीं जाया जा सकता था। भाँय-भाँय करते पूरे आस-पास में हमारे घर में ही चहल-पहल थी। काली रातें। इनमें हमारे घर जलने वाले कंदील। मुझे इन कंदीलों से डर लगता था। कुत्ते तक बस्ती छोड़ गये थे,रात के सन्नाटे में हमारी आवाजें हमें ही डरावनी लगतीं थीं। रात को मरणासन्न माँ के सामने हम लोग आरती गाते-
ओम जय जगदीश हरे,भक्त जनों के संकट पल में दूर करें।
गाते-गाते पिताजी सिसकने लगते,माँ बिलखकर हम बच्चों को हृदय से चिपटा लेतीं और हम भी रोने लगते। रोज का यह नियम था। फिर रात को पिताजी,चाचा और दो -एक रिश्तेदार लाठी-बल्लम लेकर घर के चारों तरफ घूम-घूमकर पहरा देते। ऐसे भयानक और त्रासदायक वातावरण में एक रात तीसरे पहर माँ की मृत्यु हो गयी। कोलाहल और विलाप शुरू हो गया। कुछ कुत्ते भी सिमटकर आ गये और योग देने लगे।
पाँच भाई-बहनों में माँ की मृत्यु का अर्थ मैं ही समझता था-सबसे बड़ा था।
दिखाऊ सहानुभूति से मुझे बेहद नफरत है। अभी भी दिखाऊ सहाननुभूति वाले को चाँटा मार देने की इच्छा होती है। जब्त कर जाता हूँ,वरना कई शुभचिन्तक पिट जाते। प्लेग की वे रातें मेरे मन में गहरे उतरी हैं। जिस आतंक,अनिश्चय,निराशा और भय के बीच हम जी रहे थे,उसके सही अंकन के लिये बहुत पन्ने चाहिये। यह भी कि पिता के सिवा हम कोई टूटे नहीं थे। वह टूट गये थे। वह इसके बाद भी ५-६ साल जिये,लेकिन लगातार बीमार,हताश,निष्क्रिय और अपने से ही डरते हुये। धंधा ठप्प। जमा-पूँजी खाने लगे। मेरे मैट्रिक पास होने की राह देखी जाने लगी। समझने लगा था कि पिताजी भी अब जाते ही हैं। बीमारी की हालत में उन्होंने एक भाई की शादी कर ही दी थी-बहुत मनहूस उत्सव था वह। मैं बराबर समझ रहा था कि मेरा बोझ कम किया जा रहा है। पर अभी दो छोटी बहनें और एक भाई थे।
मैं तैयार होने लगा । खूब पढ़ने वाला,खूब खेलने वाला और खूब खाने वाला मैं शुरू से था। पढ़ने और खेलने में मैं सब कुछ भूल जाता था। मैट्रिक हुआ,जंगल विभाग में नौकरी मिली। जंगल में सरकारी टपरे में रहता। ईंटे रखकर,उन पर पटिया जमाकर बिस्तर लगाता, नीचे जमीन चूहों ने पोली कर दी थी। रात भर नीचे चूहे धमाचौकड़ी करते रहते और मैं सोता रहता। कभी चूहे ऊपर आ जाते तो नींद टूट जाती पर मैं फिर सो जाता। छह महीने धमाचौकड़ी करते चूहों पर मैं सोया।
बेचारा परसाई?
नहीं,नहीं ,मैं खूब मस्त था। दिन-भर काम। शाम को जंगल में घुमाई। फिर हाथ से बनाकर खाया गया भरपेट भोजन शुद्ध घी और दूध!
पर चूहों ने बड़ा उपकार किया। ऐसी आदत डाली कि आगे की जिन्दगी में भी तरह-तरह के चूहों मेरे नीचे ऊधम करते रहे, साँप तक सर्राते रहे ,मगर मैं पटिये बिछा कर पटिये पर सोता रहा हूँ। चूहों ने ही नहीं मनुष्यनुमा बिच्छुओं और सापों ने भी मुझे बहुत काटा- पर ‘जहरमोहरा’मुझे शुरू में ही मिल गया। इसलिये ‘बेचारा परसाई’ का मौका ही नहीं आने दिया। उसी उम्र से दिखाऊ सहानुभूति से मुझे बेहद नफरत है। अभी भी दिखाऊ सहाननुभूति वाले को चाँटा मार देने की इच्छा होती है। जब्त कर जाता हूँ,वरना कई शुभचिन्तक पिट जाते।
फिर स्कूल मास्टरी। फिर टीचर्स ट्रनिंग और नौकरी की तलाश -उधर पिताजी मृत्यु के नजदीक। भाई पढ़ाई रोककर उनकी सेवा में। बहनें बड़ी बहन के साथ,हम शिक्षण की शिक्षा ले रहे थे।
फिर नौकरी की तलाश। एक विद्या मुझे और आ गयी थी-बिना टिकट सफर करना। जबलपुर से इटारसी,टिमरनी,खंडवा,देवास बार-बार चक्कर लगाने पड़ते। पैसे थे नहीं। मैं बिना टिकट बेखटके गाड़ी में बैठ जाता। तरकीबें बचने की बहुत आ गयीं थीं। पकड़ा जाता तो अच्छी अंग्रेजी में अपनी मुसीबत का बखान करता। अंग्रेजी के माध्यम से मुसीबत बाबुओं को प्रभावित कर देती और वे कहते-लेट्‌स हेल्प दि पुअर ब्वाय।
दूसरी विद्या सीखी उधार माँगने की। मैं बिल्कुल नि:संकोच भाव से किसी से भी उधार मांग लेता। अभी भी इस विद्या में सिद्ध हूँ।
तीसरी चीज सीखी -बेफिक्री। जो होना होगा,होगा,क्या होगा? ठीक ही होगा। मेरी एक बुआ थी। गरीब,जिंदगी गर्दिश -भरी,मगर अपार जीव शक्ति थी उसमें। खाना बनने लगता तो उनकी बहू कहती-बाई , न दाल ही है न तरकारी। बुआ कहती-चल चिंता नहीं। राह-मोहल्ले में निकलती और जहाँ उसे छप्पर पर सब्जी दिख जाती,वहीं अपनी हमउम्र मालकिन से कहती- ए कौशल्या,तेरी तोरई अच्छी आ गयी है। जरा दो मुझे तोड़ के दे। और खुद तोड़ लेती। बहू से कहती-ले बना डाल,जरा पानी जादा डाल देना। मैं यहाँ-वहाँ से मारा हुआ उसके पास जाता तो वह कहती-चल,चिंता नहीं,कुछ खा ले।
उसका यह वाक्य मेरा आदर्श वाक्य बना-कोई चिन्ता नहीं।
गर्दिश,फिर गर्दिश!
मैं बहुत भावुक,संवेदनशील और बेचैन तबीयत का आदमी हूँ। सामान्य स्वभाव का आदमी ठंडे-ठंडे जिम्मेदारियाँ भी निभा लेता,रोते-गाते दुनिया से तालमेल भी बिठा लेता और एक व्यक्तित्वहीन नौकरीपेशा आदमी की तरह जिंदगी साधारण सन्तोष से गुजार लेता। होशंगाबाद शिक्षा अधिकारी से नौकरी माँगने गये। निराश हुये। स्टेशन पर इटारसी के लिये गाड़ी पकड़ने के लिये बैठा था,पास में एक रुपया था,जो कहीं गिर गया था। इटारसी तो बिना टिकट चला जाता। पर खाऊँ क्या? दूसरे महायुद्ध का जमाना। गाड़ियाँ बहुत लेट होतीं थीं। पेट खाली। पानी से बार-बार भरता। आखिर बेंच पर लेट गया।चौदह घंटे हो गये । एक किसान परिवार पास आकर बैठ गया। टोकरे में अपने खेत के खरबूजे थे। मैं उस वक्त चोरी भी कर सकता था। किसान खरबूजा काटने लगे। मैंने कहा- तुम्हारे ही खेत के होंगे। बडे़ अच्छे हैं। किसान ने कहा- सब नर्मदा मैया की किरपा है भैया! शक्कर की तरह हैं। लो खाके देखो। उसने दो बड़ी फांके दीं। मैंने कम-से-कम छिलका छोड़कर खा लिया। पानी पिया। तभी गाड़ी आयी और हम खिड़की में घुस गये।
नौकरी मिली जबलपुर से सरकारी स्कूल में। किराये तक के पैसे नहीं। अध्यापक महोदय ने दरी में कपडे़ बाँधे और बिना टिकट चढ़ गये गाड़ी में। पास में कलेक्टर का खानसामा बैठा था। बातचीत चलने लगी। आदमी मुझे अच्छा लगा। जबलपुर आने लगा तो मैंने उसे अपनी समस्या बताई। उसने कहा -चिन्ता मत करो। सामान मुझे दो। मैं बाहर राह देखूँगा। तुम कहीं पानी पीने के बहाने सींखचों के पास पहुँच जाना। नल सींखचों के पास ही है। वहाँ सींखचों को उखाड़कर निकलने की जगह बनी हुई है। खिसक लेना। मैंने वैसा ही किया। बाहर खानसामा मेरा सामान लिये खड़ा था। मैंने सामान लिया और चल दिया शहर की तरफ। कोई मिल ही जायेगा,जो कुछ दिन पनाह देगा,अनिश्चय में जी लेना मुझे तभी आ गया था।
पहले दिन जब बाकायदा ‘मास्साब’ बने तो बहुत अच्छा लगा। पहली तनख्वाह मिली ही थी कि पिताजी की मृत्यु की खबर आ गयी। माँ के बचे जेवर बेचकर पिता का श्राद्ध किया और अध्यापकी के भरोसे बड़ी जिम्मेदारियाँ लेकर जिंदगी के सफर पर निकल पड़े।
उस अवस्था की इन गर्दिशों के जिक्र मैं आखिर क्यों इस विस्तार से कर गया? गर्दिशें बाद में भी आयीं ,अब भी आतीं हैं,आगे भी आयेंगी, पर उस उम्र की गर्दिशों की अपनी अहमियत है। लेखक की मानसिकता और व्यक्तित्व निर्माण से इनका गहरा सम्बन्ध है।
मैंने कहा है- मैं बहुत भावुक,संवेदनशील और बेचैन तबीयत का आदमी हूँ। सामान्य स्वभाव का आदमी ठंडे-ठंडे जिम्मेदारियाँ भी निभा लेता,रोते-गाते दुनिया से तालमेल भी बिठा लेता और एक व्यक्तित्वहीन नौकरीपेशा आदमी की तरह जिंदगी साधारण सन्तोष से गुजार लेता।
मेरे साथ ऐसा नहीं हुआ,जिम्मेदारियाँ,दुखों की वैसी पृष्ठभूमि और अब चारों तरफ से दुनिया के हमले -इस सब सबके बीच सबसे बड़ा सवाल था अपने व्यक्तित्व और चेतना की रक्षा । तब सोचा नहीं था कि लेखक बनूँगा। पर मैं अपने विशिष्ट व्यक्तित्व की रक्षा तब भी करना चाहता था।
जिम्मेदारी को गैर-जुम्मेदारी की तरह निभाओ।
मैंने तय किया-परसाई,डरो मत किसी से। डरे कि मरे। सीने को ऊपर-ऊपर कड़ा कर लो। भीतर तुम जो भी हो। जिम्मेदारी को गैर-जुम्मेदारी की तरह निभाओ। जिम्मेदारी को अगर जिम्मेदारी के साथ निभाओगे तो नष्ट हो मैंने तय किया-परसाई,डरो मत किसी से। डरे कि मरे। सीने को ऊपर-ऊपर कड़ा कर लो। भीतर तुम जो भी हो। जिम्मेदारी को गैर-जुम्मेदारी की तरह निभाओ। जिम्मेदारी को अगर जिम्मेदारी के साथ निभाओगे तो नष्ट हो जाओगे। और अपने से बाहर निकलकर सब में मिल जाने से व्यक्तित्व और विशिष्टता की हानि नहीं होती। लाभ ही होता है। अपने से बाहर निकलो। देखो, समझो और हँसो।
मैं डरा नहीं । बेईमानी करने में भी नहीं डरा। लोगों से नहीं डरा तो नौकरियाँ गयीं। लाभ गये,पद गये,इनाम गये। गैर-जिम्मदार इतना कि बहन की शादी करने जा रहा हूँ। रेल में जेब कट गयी,मगर अगले स्टेशन पर पूड़ी-साग खाकर मजे में बैठा हूँ कि चिन्ता नहीं। कुछ हो ही जायेगा। मेहनत और परेशानी जरूर पड़ी यों कि बेहद बिजली-पानी के बीच एक पुजारी के साथ बिजली की चमक से रास्ता खोजते हुये रात-भर में अपनी बड़ी बहन के गाँव पहुँचना और कुछ घंटे रहकर फिर वापसी यात्रा। फिर दौड़-धूप! मगर मदद आ गयी और शादी भी हो गयी।
पहले अपने दु:खों के प्रति सम्मोहन था। अपने को दुखी मानकर और मनवाकर आदमी राहत पा लेता है। बहुत लोग अपने लिये बेचारा सुनकर सन्तोष का अनुभव करते हैं। इन्हीं परिस्थितियों के बीच मेरे भीतर लेखक कैसे जन्मा,यह सोचता हूँ। पहले अपने दु:खों के प्रति सम्मोहन था। अपने को दुखी मानकर और मनवाकर आदमी राहत पा लेता है। बहुत लोग अपने लिये बेचारा सुनकर सन्तोष का अनुभव करते हैं। मुझे भी पहले ऐसा लगा। पर मैंने देखा,इतने ज्यादा बेचारों में मैं क्या बेचारा! इतने विकट संघर्षों में मेरा क्या संघर्ष!
मेरा अनुमान है कि मैंने लेखन को दुनिया से लड़ने के लिये एक हथियार के रूप में अपनाया होगा। दूसरे,इसी में मैंने अपने व्यक्तित्व की रक्षा का रास्ता देखा। तीसरे,अपने को अवशिष्ट होने से बचाने के लिये मैंने लिखना शुरू कर दिया। यह तब की बात है,मेरा ख्याल है, तब ऐसी ही बात होगी।
पर जल्दी ही मैं व्यक्तिगत दु:ख के इस सम्मोहन-जाल से निकल गया। मैंने अपने को विस्तार दे दिया।दु:खी और भी हैं। अन्याय पीड़ित और भी हैं। अनगिनत शोषित हैं। मैं उनमें से एक हूँ। पर मेरे हाथ में कलम है और मैं चेतना सम्पन्न हूँ।
यहीं कहीं व्यंग्य - लेखक का जन्म हुआ । मैंने सोचा होगा- रोना नहीं है,लड़ना है। जो हथियार हाथ में है,उसी से लड़ना है। मैंने तब ढंग से इतिहास, समाज, राजनीति और संस्कृति का अध्ययन शुरू किया। साथ ही एक औघड़ व्यक्तित्व बनाया। और बहुत गम्भीरता से व्यंग्य लिखना शुरू कर दिया।
अकेले वही सुखी हैं,जिन्हें कोई लड़ाई नहीं लड़नी। उनकी बात अलग है। अनगिनत लोगों को सुखी देखता हूँ और अचरज करता हूँ कि ये सुखी कैसे हैं!मुक्ति अकेले की नहीं होती। अलग से अपना भला नहीं हो सकता। मनुष्य की छटपटाहट मुक्ति के लिये,सुख के लिये,न्याय के लिये।पर यह बड़ी अकेले नहीं लड़ी जा सकती। अकेले वही सुखी हैं,जिन्हें कोई लड़ाई नहीं लड़नी। उनकी बात अलग है। अनगिनत लोगों को सुखी देखता हूँ और अचरज करता हूँ कि ये सुखी कैसे हैं! न उनके मन में सवाल उठते हैं न शंका उठती है। ये जब-तब सिर्फ शिकायत कर लेते हैं। शिकायत भी सुख देती है। और वे ज्यादा सुखी हो जाते हैं।कबीर ने कहा है-सुखिया सब संसार है,खावै अरु सोवे।दुखिया दास कबीर है,जागे अरु रोवे।जागने वाले का रोना कभी खत्म नहीं । व्यंग्य-लेखक की गर्दिश भी खत्म नहीं होगी।कोई लाभ खुद चलकर दरवाजे पर नहीं आता। चिरौरी करनी पड़ती है। लाभ थूकता है तो उसे हथेली पर लेना पड़ता है,इस कोशिश में बड़ी तकलीफ हुई।ताजा गर्दिश यह है कि पिछले दिनों राजनीतिक पद के लिये पापड़ बेलते रहे। कहीं से उम्मीद दिला दी गई कि राज्यसभा में हो जायेगा। एक महीना बड़ी गर्दिश में बीता। घुसपैठ की आदत नहीं है,चिट भीतर भेजकर बाहर बैठे रहने में हर क्षण मृत्यु-पीडा़ होती है। बहादुर लोग तो महीनों चिट भेजकर बाहर बैठे रहते हैं,मगर मरते नहीं। अपने से नहीं बनता। पिछले कुछ महीने ऐसी गर्दिश के थे। कोई लाभ खुद चलकर दरवाजे पर नहीं आता। चिरौरी करनी पड़ती है। लाभ थूकता है तो उसे हथेली पर लेना पड़ता है,इस कोशिश में बड़ी तकलीफ हुई। बड़ी गर्दिश भोगी।
मेरे जैसे लेखक की एक गर्दिश और है। भीतर जितना बवंडर महसूस कर रहे हैं,उतना शब्दों में नहीं आ रहा है, तो दिन-रात बेचैन हैं। यह बड़ी गर्दिश का वक्त होता है,जिसे सर्जक ही समझ सकता है।
मेरे जैसे लेखक की एक गर्दिश और है। भीतर जितना बवंडर महसूस कर रहे हैं,उतना शब्दों में नहीं आ रहा है, तो दिन-रात बेचैन हैं।यों गर्दिशों की एक याद है। पर सही बात यह है कि कोई दिन गर्दिश से खाली नहीं है। और न कभी गर्दिश का अन्त होना है। यह और बात है कि शोभा के लिये कुछ अच्छे किस्म की गर्दिशें चुन लीं जाएं। उनका मेकअप कर दिया जाये,उन्हें अदायें सिखा दी जायें- थोडी़ चुलबुली गर्दिश हो तो और अच्छा-और पाठक से कहा जाए-ले भाई,देख मेरी गर्दिश!
-हरिशंकर परसाई

Friday, September 19, 2008

संझा दीपक
तुलसी चौरे पर हर सांझ
दीप जलाती मेरी माँ
दिनभर गृहस्थी की फटी गुदडी में ,
अपनी सारी जद्दो जहद के बाबजूद
अतीत के बक्से से निकलकर
सुख की चादर लपेट लेती है ।
सर्वे भवन्तु सुखिनः -
उसकी प्रार्थना के स्वरों में ,
घुल जाती है कितने ही मंदिरों के घंटों
और मस्जिदों के अजानों के स्वर ।
विश्व मंगल के कामना करती
बंद आंखों से पिघलने लगते हैं,
दिनभर में समेटे दर्द के शिलाखंड
हारी हुई लडाइयों से जूझने की विवशता ,
फिर कुछ ही पलों में माँ अपने ईश्वर को
उसकी दी हुई सारी पीड़ा लौटा देती ही,
और समेट लेती है
नन्हे से दिए का मुट्ठी भर उजाला
उकेरने लगती है हमसब की जिन्दगी के ,
काले अंधियारे पृष्ठों पर
सुख के सुनहले चित्र।
मोना परसाई

Tuesday, September 16, 2008

बेसन की सोंधी रोटी

बेसन की सोंधी रोटी पर
खट्टी चटनी जैसी माँ
याद आती है चौका बासन
चिमटा फुँकनी जैसी माँ

बान की खूर्रीं खाट के ऊपर
हर आहट पर कान धरे
आधी सोई आधी जागी
थकी दुपहरी जैसी माँ

चिड़ियों की चहकार में गूंजे
राधा -मोहन अली-अली
मुर्गे की आवाज़ से खुलती
घर की कुंडी जैसी माँ

बीवी बेटी बहन पडोसन
थोडी थोड़ी सी सब में
दिनभर एक रस्सी के ऊपर
चलती नटनी जैसी माँ

बाँट के अपना चेहरा माथा
आँखें जाने कहाँ गईं
फटे पुराने इक अलबम में
चंचल लड़की जैसी माँ
- निदा फ़ाज़ली

Monday, September 15, 2008

प्रेम की सर्वश्रेष्ठ कविता


आदर्श प्रेम

प्यार उसी जो करना लेकिन कहकर उसे बताना क्या I
अपने को अर्पण करना लेकिन और को अपनाना क्या II

गुन का ग्राहक बनना लेकिन गाकर उसे सुनाना क्या I
मन के कल्पित भावों से औरों को भ्रम में लाना क्या II

लेना सुगंध सुमनों की तोड़ उन्हें मुरझाना क्या I
प्रेम हार पहनाना लेकिन प्रेम पाश पहनाना क्या II

त्याग अंक में पले प्रेम शिशु उसमें स्वार्थ बताना क्या I
देकर ह्रदय ह्रदय पाने की आशा व्यर्थ लगाना क्या II

हरिवंश राय बच्चन

Saturday, September 13, 2008

हिन्दी दिवस पर दुनिया के सभी हिन्दी प्रेमियों को शुभकामनाएं
उड़ने को तैयार
( हिन्दी दिवस विशेष )

परंपरा की
घनी धरोहर और
प्रगति से प्यार
हिंदी अपने पंख फैलाए
उड़ने को तैयार

फूल फूल में कली कली में
घर आंगन में गली गली में
फूल उठा है
मधुर गंध से
जिसका अमित दुलार
जिसमें अच्छे लगते अपने
उत्सव तीज त्योहार

जन गण मन की अभिलाषा है
कोटि प्रयत्नों की आशा है
शिक्षा और
धनार्जन में भी
इसका हो आधार
हिंदी पढ़ने लिखने वाला
कभी न हो बेकार

आसमान तक उड़ कर जाए
हिंदी अपना ध्वज फैलाए
शांति छाँह में
मिल कर बैठे
दुखिया यह संसार
विश्व प्रेम की पंखुरियों का
गूँथें अनुपम हार
-पूर्णिमा वर्मन

Wednesday, September 10, 2008

बाबूजी
घर की बुनियादें दीवारें बामों दर थे बाबूजी सबको
बांधे रखने वाला खास हुनर थे बाबुजी

तीन मुहल्लों में उन जैसी कद काठी वाला कोई न था
अच्छे खासे ऊँचे पूरे कद्दावर थे बाबुजी

अब तो उस सूने माथे पर कोरेपन की चादर है
अम्माजी की सारी सजधज सब जेबर थे बाबूजी

भीतर से खासे जज्बाती और ऊपर से ठेठ पिता
अलग अनूठा अनबूझा सा इक तेवर थे बाबूजी

कभी बड़ा सा हाथ खर्च थे कभी हथेली की सूजन
मेरे मन का आधा हिस्सा आधा डर थे बाबूजी

अम्मा

चिंतन,दर्शन,जीवा,सर्जन,रूह,नजर पर छाई अम्मा
सारे घर का शोर शराबा, सूनापन तन्हाई अम्मा

उसने ख़ुद को खोकर, मुझमें एक नया आकार लिया
धरती, अम्बर, आग,हवा,जल जैसी सच्चाई अम्मा

घर के झीने रिश्ते मैंने लाखों बार उधरते देखे
जाने कब चुपके से कर देती तुरपाई अम्मा

सारे रिश्ते जेठ दुपहरी , गर्म हवा, आतिश अंगारे
झरना, दरिया, झील, समंदर, भीनी सी पुरवाई अम्मा

पिछले बरस बाबूजी गुजरे, चीजें सब तक़सीम हुई
मैं घर में सबसे छोटा था मेरे हिस्से आई अम्मा
आलोक श्रीवास्तव
ये दोनों कविताएं दिल को छु गयी इसीलिए आप सब के लिए पढ़ें और याद करें अपने माँ-पिता को
अपने विचार भी लिखें

Sunday, September 7, 2008

अमीर खुसरो की अमर मुकरियाँ

रात समय वह मेरे आवे। भोर भये वह घर उठि जावे॥
यह अचरज है सबसे न्यारा। ऐ सखि साजन? ना सखि तारा॥

नंगे पाँव फिरन नहिं देत। पाँव से मिट्टी लगन नहिं देत॥
पाँव का चूमा लेत निपूता। ऐ सखि साजन? ना सखि जूता॥

वह आवे तब शादी होय। उस बिन दूजा और न कोय॥
मीठे लागें वाके बोल। ऐ सखि साजन? ना सखि ढोल॥

जब माँगू तब जल भरि लावे। मेरे मन की तपन बुझावे॥
मन का भारी तन का छोटा। ऐ सखि साजन? ना सखि लोटा॥

बेर-बेर सोवतहिं जगावे। ना जागूँ तो काटे खावे॥
व्याकुल हुई मैं हक्की बक्की। ऐ सखि साजन? ना सखि मक्खी॥

अति सुरंग है रंग रंगीले। है गुणवंत बहुत चटकीलो॥
राम भजन बिन कभी न सोता। क्यों सखि साजन? ना सखि तोता॥

अर्ध निशा वह आया भौन। सुंदरता बरने कवि कौन॥
निरखत ही मन भयो अनंद। क्यों सखि साजन? ना सखि चंद॥

शोभा सदा बढ़ावन हारा। आँखिन से छिन होत न न्यारा॥
आठ पहर मेरो मनरंजन। क्यों सखि साजन? ना सखि अंजन॥

जीवन सब जग जासों कहै। वा बिनु नेक न धीरज रहै॥
हरै छिनक में हिय की पीर। क्यों सखि साजन? ना सखि नीर॥

बिन आये सबहीं सुख भूले। आये ते अँग-अँग सब फूले॥
सीरी भई लगावत छाती। क्यों सखि साजन? ना सखि पाति॥
- अमीर खुसरो

Tuesday, September 2, 2008

विश्वासों की चिड़िया

राई जितना पुण्य है,
पर्वत जितना पाप
विश्वासों की चिड़िया डरती
घुट-घुट हर पल आहें भरती
कोई है ना सुनने वाला
एक अकेली जीती मरती
अपनेपन को - लग गया,
आज किसी का शाप
नागफनी घोटालों की है
चलती कपटी चालों की है
झेल रहे नित पीड़ा गहरी
हालत यह रखवालों की है
मन से सुख - अब है उड़ा,
बनकर सारा भाप
मन खेतों में नफरत उगती
प्यासी-प्यारी हसरत उगती
काँटों के मन अब भी गहरी
केवल रोज शरारत उगती
राम-नाम का - कर रहे,
कपटी बगुले जाप
-श्याम अंकुर( अनुभूति से साभार)