अब नहीं हो ......
हार किस काँधे पे धर दूँ ,
जीत किस को भेंट कर दूँ,
कोई तो अपना नही था,
एक तुम थे अब नही हो।
किस तरह राहत बनेगी,
टूट जाने की हताशा,
थक गई साँसों को देगा,
कौन जीवन की दिलासा
बिस्तरों पर सलवटें अब,
नींद क्या, बस करवटें अब,
रात ने ताने दिए तो,
आँख में बस बात ये की,
कोई तो सपना नहीं था,
एक तुम थे अब नही हो,
किस हथेली की रेखाओं,
का वरन मैंने किया है,
किसका क्षण भर प्यार पाने को,
जनम मैंने लिया है,
इस प्रश्न का हल मिला कल,
वही रीता हुआ पल,
जिसने मेरा गीत साधा,
जो कहो रत्ना या राधा,
कोई तो इतना नहीं था,
एक तुम थे अब नही हो।
उक्त कविता लखनऊ से सुश्री आदिती राज्यवर्धन ने भेजी है परिक्रमा के लिए,
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