
शंकर सक्सेना की दोहा सागर
सागर से बादल बना , बादल से बरसात।
वर्षा से रोटी मिले , कुदरत की सौगात ॥
अंकुर फूटा खेत मैं, नाच उठा मन मोर ।
मस्त नगाडे सा लगा, बरखा-बादल शोर॥
बहीं मछलियां धर मैं, चिंतित नदी तालाब।
वापस अपने देश को, लौट आए सुरखाब॥
किरण सांवरी हो गयी, देख मेघ का रूप।
खोज रही घनश्याम को, राधा नगरी रूप॥
लाज रंगी वृषभानुजा, टाक रही घनश्याम।
नटनागर लौटे नही, फिर घिर शाम॥
बादल, वर्षा देखकर, कैसे हँसे किसान।
खेत बने कालोनियां, कहाँ लगाएं धान॥
गीत गुनगुनाये नदी, झूमे सारा गाँव ।
झरे निबोरी भावःकी , पग पग महके छाँव॥
लोलुप मन खंजन नयन, इन सबकी गति दीन।
पावस भर व्याकुल रहे, उथले जल की मीन॥
ये सावन बैरी हुआ, तुम्हें ले गया साथ।
'शंकर' पत्थर हो गए, बैठे मलते हाथ।
मन टूटा, हारा, जुदा, उड़ा तौलता पंख।
पड़े रह गए रेत पर घोंघे, शीपी शंख ॥
कौवा, सुग्गा, मोर सब, रहे परों को नोच।
कौन विचारे अब सगुण, कौन मधाये चोंच॥
(आदरणीय शंकर सक्सेना, मध्य प्रदेश के जाने माने हस्ताक्षर है, निवास सी - १३, अमृता विहार, कोरिन्भाता
राजनांदगांव )
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