Monday, June 23, 2008


आज भी दुष्यंत .......

होने लगी है जिस्म में

होने लगी है जिस्म मैं जुम्बिश तो देखिये,
इस परकटे परिंदे की कोशिश तो देखिये।

गूंगे निकल पड़े हैं जुबान की तलाश में,
सरकार के खिलाफ ये साजिश तो देखिये।

बरसात आ गई तो दरकने लगी जमीन ,
सूखा मचा रही है ये बारिश तो देखिये,

उनकी अपील है की उन्हें हम मदद करें,
चाकू की पसलियों से गुजारिश तो देखिये।

जिसने नज़र उठाई वही शख्स गुम हुआ
इस जिस्म के तिलस्म की बंदिश तो देखिये।

1 comment:

Surya said...

बहुत अच्छी लगी ये कविता...