संझा दीपक
तुलसी चौरे पर हर सांझ
दीप जलाती मेरी माँ
दिनभर गृहस्थी की फटी गुदडी में ,
अपनी सारी जद्दो जहद के बाबजूद
अतीत के बक्से से निकलकर
सुख की चादर लपेट लेती है ।
सर्वे भवन्तु सुखिनः -
उसकी प्रार्थना के स्वरों में ,
घुल जाती है कितने ही मंदिरों के घंटों
और मस्जिदों के अजानों के स्वर ।
विश्व मंगल के कामना करती
बंद आंखों से पिघलने लगते हैं,
दिनभर में समेटे दर्द के शिलाखंड
हारी हुई लडाइयों से जूझने की विवशता ,
फिर कुछ ही पलों में माँ अपने ईश्वर को
उसकी दी हुई सारी पीड़ा लौटा देती ही,
और समेट लेती है
नन्हे से दिए का मुट्ठी भर उजाला
उकेरने लगती है हमसब की जिन्दगी के ,
काले अंधियारे पृष्ठों पर
सुख के सुनहले चित्र।
मोना परसाई
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
3 comments:
वाकई माँ की सही तस्वीर यही है
अछ्ही रचना के लिए साधुवाद
बहुत अच्छा
आदरणीय मोना जी,
मन भारी हो गया आपकी कविता पढ़कर
धन्यवाद
Post a Comment