सरकार आज फिर एक आम आदमी तेरे द्वार पर आया है।
मैं प्रतिदिन न्याय का घंटा बजाते थक गया हूँ। इसलिए
आज तेरे द्वार पर दस्तक देने आया हूँ।
आज में अभियोगी नही अपराधी बन गया हूँ, क्योंकि आज मैं अपनी पूरी निष्ठां से राजद्रोह करने
को उठ खड़ा हुआ हूँ। मैं थक चुका हूँ इस अनिर्णय के वातावरण से। आख़िर ये सब मेरे साथ
ही क्यों होता है अपराध करे कोई भी भुगतना तो मुझे ही पड़ता है ।
मेरे घर मैं हत्यारे घुसे मेरे अपने मारे गए उन्हें न्याय कब मिलेगा ये टीस रात दिन मेरे सीने को छलनी करती है। सत्यम झूठं करे कोई घरबार मेरा ही लुटे।
मैं जानता हूँ की इस मदांध और पदान्ध सत्ता को चुनौती देना ठीक नहीं ही , परन्तु इस सफ़ेद हाथी को उठाने के लिए इसके मस्तक पर शूल चुभाना आवश्यक होने लगा है।
मेरे पास अन्य कोई उपाय नही ही।
लेकिन तुम ये न सोचना की गरजने वाले बरसते नही।
संजीव परसाई
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